महात्मा गांधी की स्वदेशी अवधारणा एवं उसकी
वर्तमान में प्रासंगिकता-
आज हम परिवर्तन के युग के मध्य
जीवन यापन कर रहे हैं। आज विश्व में जो कोई महान आंदोलन अथवा अवधारणा की बात कही
जाती हैं उनमें महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित आंदोलन व उनके मूल्य एवम प्रतीक ही
सबसे अधिक परिवर्तन कर रहा है और जब वस्तुत: ऐसा परिवर्तन हो जाएगा और बडे पैमाने
पर उसकी प्रतिष्ठा हो जाएगी तो वह सचमुच क्रांति होगी। महात्मा गांधी को एक
फरिश्ता, एक युगदृष्टा, समाज सुधारक, उदारवादी, एक संघर्षकर्त्ता,
एक विचारक और अंतत: एक मानवतावादी के रूप में
जाना जा सकता है। गांधी जी को ग्रामीण समुदाय के प्रति गहरा लगाव था। गांधी के युग
में शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण गांवो का विकास ठप्प पड़ गया था और वे नष्ट होने
लगे थे। तब उस समय उन्होने गांवो की आत्मनिर्भरता की वकालत की। गांधी जी का
स्वर्णिम स्वप्न उनकी दृष्टि में फलदायी थी और उनके परिणाम भी सामने आये।
महात्मा गांधी के अनुसार – “वास्तव में स्वदेशी ही एक ऐसा सिध्दांत है जिसमे मानवता व प्रेम समाहित है।"
स्वदेशी विचार की अवधारणा अत्यंत व्यापक है।
महात्मा गांधी ने जिस स्वदेश की कल्पना की थी उसका अर्थ तत्कालीन राष्ट्र मे सभी
विदेशी वस्तुओ के बहिष्कार से नही था, वे केवल स्थानीय
संसाधनो के उपयोग की सीमाए लागू करना चाहते थे । विशेष रुप से गृह- उद्योग के
अंतर्गत हस्तशिल्प, कुम्भकार आदि जिनके बिना भारत का विकास नही हो सकता था।
गांधी जी के अनुसार-
“स्वदेशी का तात्पर्य उस भावना से है जो
हमें अपने आसपास में निर्मित वस्तुओ के उपयोग तक से है। यह बाहर की वस्तुओ के
प्रयोग का निषेध करता है। स्वदेशी एक धर्म है, एक कर्तव्य है जो हमें
पैतृक धर्म की सीमा में अनुबंधित करता है। अगर इसमें कोई दोष है तो इसे सुधारना
चाहिए। राजनीति के क्षेत्र में केवल स्वदेशी संस्थाओ के प्रयोग से है तथा उसमे जो खामियां
हैं उसे हटाकर उसके उपयोग से है। आर्थिक क्षेत्र में उन्ही वस्तुओ के उपयोग से है
जो आसपास में निर्मित होती हैं,तथा पडोस में बनने वाली
वस्तुओ की गुणवत्ता में सुधार व उपयोग से है|"
स्वदेशी अवधारणा की एतिहासिक पृष्ठभूमि-
वर्ष 1905 ई. में बंगाल विभाजन के फलस्वरूप बंग
भंग विरोधी आंदोलन भी स्वदेशी की भावना से ओत-प्रोत होकर विदेशी वस्तुओ का
बहिष्कार किया था। देश व्यापी इस स्वदेशी भावना को व्यापक स्वरुप प्रदान करने का
कार्य वर्ष 1920 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन प्रारम्भ करके किया।
जिसके बाद उन्होने विदेशी वस्तुओ के
बहिष्कार तथा उद्योग-शिल्प, भाषा, शिक्षा,
वेश-भूषा आदि को स्वदेशी का स्वरुप को बढावा दिया गया।
महात्मा गांधी की स्वदेशी अवधारणा-
- आर्थिक स्वदेशी अवधारणा
- शैक्षणिक स्वदेशी अवधारणा
- सांस्कृतिक स्वदेशी अवधारणा
- राजनैतिक स्वदेशी अवधारणा
1.
आर्थिक स्वदेशी अवधारणा-
2. गांधी जी के अनुसार – “आर्थिक व्यवस्था उन मानव प्राणियों की आत्म -सन्यमित सामूहिक क्रिया का विवेचन है जो पूरे समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रयास करते हैं ताकि “आत्मनिर्भरता” प्राप्त हो सके।"
आर्थिक स्तर पर गांधी जी स्वदेशी प्रणाली के समर्थक थे। गांधी
ऐसी प्रणाली के समर्थक थे जिसके श्रम की महत्ता हो और सभी व्यक्ति को आजीविका का साधन
मिल सके। जिनमे राष्ट्र अपने साधन और श्रम के उपयोग से आत्मनिर्भर बन सके। आत्मनिर्भरता
की ओर अग्रसर होते हुए कुटीर उद्योग तथा लघु उद्योग की स्थापना की जा सके। गांधी जी
के अनुसार ग्रामीण गरीबी को दूर करने के लिये खादी, चरखा, सूत कातने को बढावा दिया। गांधी जी ने देशवासियो को अपने अतिरिक्त समय में
इन कार्यो को करने के लिये प्रोत्साहन दिया। व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण व मशीनीकरण
का विरोध किया। उनके ऐसी अवधारणा के पीछे का कारण यह था कि अविकसित देशों में व्यापक
औद्योगीकरण से शोषण होता है। इसलिये उन्होने विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार कर स्वदेशी
पर विशेष बल दिया। ताकि ब्रिटिश शासन के आर्थिक आधार को समाप्त किया जा सके। आर्थिक
संचय और भौतिकवादी पाश्चात्य सिध्दांत का उन्होने घोर विरोध किया।
3.
शैक्षणिक स्वदेशी अवधारणा-
गांधी जी द्वारा बुनियादी शिक्षा पर जोर दिया गया। गांधी जी
स्वदेशी शिक्षा के द्वारा देशव्यापी राष्ट्रीयता की भावना को उजागर किया। इससे आम जन
ने अपने अधिकार को जाना यही कारण है कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान छात्रों ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। स्वदेशी भावना के तहत ही देवघर विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय स्कूल व कालेज
खोले गए। स्वदेशी शिक्षा के तीव्र प्रसार हेतु गांधी जी ने ब्रिटिश भाषा की जगह भारतीय
भाषा पर विशेष बल दिया। सन 1925 के कानपुर अधिवेशन में गांधी जी ने हिंदी से सम्बंधित
प्रस्ताव पारित करवाया। इनका मानना था कि हिंदी भारत व्यापी अन्तर्क्षेत्रीय सम्पर्क
की भाषा है। इसलिए हिंदी का विकास राष्ट्रवाद के विकास से जुड़ा है।
4.
सांस्कृतिक स्वदेशी अवधारणा-
गांधीजी ने भारती सभ्यता, संस्कृति और स्वदेशी परम्पराओं
पर बल दिया। लेकिन वे सती प्रथा, अस्पृश्यता, लैंगिक भेदभाव के घोर विरोधी थे। गांधी जी ने पाश्चात्य संस्कृति के स्थान
पर अपनी संस्कृति को बेहतर माना और अपनी जीवनशैली में सुधार लाते हुए भारतीय संस्कृति
के अनुसरण पर विशेष जोर दिया।
5.
राजनैतिक स्वदेशी अवधारणा-
राजनितिक स्तर पर गांधी जी ने स्वराज सरकार अर्थात स्वदेशी सरकार पर बल दिया। गांधी
जी ने विदेशी सत्ता और उनकी राजव्यवस्था का विरोध समय-समय पर बड़े स्तर पर किया। उनके
अनुसार सत्ता का विकेंद्रीकरण ही समाज का सही मायने में विकास कर सकता है। गांधी जी
भारत के लिए एक लोककल्याणकारी स्वदेशी व्यवस्था को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया
है। जिसे “रामराज्य” के रूप में जाना जाता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि गांधी जी
भारत को एक सम्पूर्ण स्वदेश आधार प्रदान करना चाहते थे। महात्मा गांधी के स्वदेशी
सम्बंधी विचार सर्वप्रथम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान परिलक्षित हुए।
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति से सम्पूर्ण विश्व प्रभावित हो चुका था।ऐसे समय में
भारत जैसे औपनिवेशिक देश इससे भी इसके चपेट में आ चुका था। भारत में स्वदेशी
वस्तुओ के समर्थक इस बात पर जोर दे रहे थे कि इंग्लैंड में निर्मित वस्तुए भारत
में आकर बेची जाती हैं जिससे भारत का धन ब्रिटेन को चला जाता है। अत: ऐसे औद्योगिक
केंद्र भारत में स्थापित कर अपने ही देश में उत्पादन किया जाए। जिससे धन निष्कासन
की समस्या का समाधान हो सके।
इसी के मद्देनजर गांधी जी ने मेंचेस्टर की
उत्पादन शैली की आलोचना करते हुए बड़े पैमाने पर मशीनो का उपयोग और भावी भविष्य में
उसकी भयावहता और परिणामों के बारे में सन 1909 में अपनी पुस्तक “हिंद स्वराज” से
समस्त भारतीयो तथा विश्व का ध्यान आकृष्ट कराया था। और यही से भारत के लिए अपना
"स्वदेशी अवधारणा" को गति प्रदान किया
था। जिसके अंतर्गत लघु व कुटीर उद्योगो को पुनर्गठित कर ग्राम स्वरोजगार
-अर्थव्यवस्था को सम्बल करने और ग्रामो को को आत्मनिर्भर बनाए जाने पर विशेष बल
दिया था।
महात्मा गांधी की स्वदेशी सम्बंधी अवधारणा
वर्तमान परिस्थितियों कोविड -19 जैसे विश्वव्यापी महामारी के दौर में और भी ज्यादा
प्रासंगिक हो गया है। गांधी जी की सर्वोदय योजना जो कि रस्किन की पुस्तक “अन टू
दिस लास्ट” से इसके सिध्दांत को लिया गया था तथा उसे अपने जीवन में आत्मसात भी
किया, इसके अतिरिक्त स्वदेशी व स्वच्छता के लिये गांधी जी ने संघर्ष किया
जब सन 1895 में ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण
आफ्रीका में भारतीयो और एशियाई व्यापारियो से उनके स्थानो को गंदा रखने के आधार पर
भेदभाव किया था, तब से लेकर जीवन भर गांधी जी लगातार
स्वच्छता पर जोर देते रहे। गांधी जी की यह
अवधारणा वर्तमान में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
वर्तमान में भारत सरकार की “आत्मनिर्भर भारत” की संकल्पना कही न कही गांधी जी की स्वदेशी आंदोलन की अवधारणा को चरितार्थ करती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इतिहास को भुलाए बिना उसके दिखाए गए मार्ग पर चलकर कही ज्यादा मूल्यपरक विकास की ओर अग्रसर हो सकेंगे। गांधी जी के द्वारा हमारी आजादी के लिए किए गए सभी कार्य हमें सदैव प्रेरणा देते रहेंगे। गांधीजी भले ही आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके विचार सदा सदा के लिए हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे। विश्वभर में महात्मा गांधी सिर्फ एक नाम नहीं है बल्कि शांति और अहिंसा का प्रतीक है। सन 2007 से संयुक्त राष्ट्र संघ ने गांधी जयंती को “विश्व अहिंसा दिवस” के रूप में मनाने की घोषणा की। गांधीजी के बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि- “हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी की हाड मांस से बना ऐसा कोई मनुष्य भी धरती पर कभी आया था।पो
वेददान सुधीर जी ने गान्धी जी का मूल्यान्कन
करते हुए कहा है कि – “इंग्लैंड के बौध्दिक राजनेता क्रासमैन ने सुकरात को मृत्यु
के अवसर पर कहा था- सुकरात को मृत्यु के लिए विवश किया जायेगा, उसकी
मृत्यु को औचित्यपूर्ण भी माना जायेगा और परवर्ती पीढियां उसकी भर्त्सना भी
करेंगी। इतिहास पुरूष सुकरात की भर्त्सना करके प्रत्येक पीढी अपनी हत्या करती
है।" यही बात महात्मा गांधी पर भी लागू
होती है। गांधी जी का अनादर हुआ, उन्हे धोखा दिया गया और
अपने ही लोगो ने उन्हे मृत्यु की गोद में सुला दिया, किंतु
उनके मरते ही लोगो ने यह सोचना शुरु कर दिया कि उनके पदचिन्हो पर न चलकर किस
प्रकार का भारत सृजित होता है। और तब संविधान -निर्माताओ की एक मजबूत लाबी ने
गांधीवादी सिद्धांतो पर आधारित संविधान निर्माण की बात कही। उन्होने संसदीय
प्रजातंत्र, संघवाद एवं एक सशक्त केंद्रीय सरकार की धारणा का
जबरदस्त विरोध किया। उनका तर्क था कि विदेशी संस्थाए समस्याओं को हल करके उन्हे
बढाएंगी ही। आज हर स्तर पर भ्रष्टाचार , भाई-भतीजावाद,
साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद के पीछे गांधीवादी मूल्यों की अवहेलना
की जाती है। गांधीवादी दर्शन में ही सभी बुराईयों के अंत को तलाशा जा सकता है।
आधुनिक भारतीय चिंतकों में यद्पि अनेकानेक
लेखकों एवं विचारकों ने योगदान दिया है किंतु आधुनिक भारत के निर्माताओ में युग
पुरूष महात्मा गांधी का नाम एवं योगदान अद्वीतिय है। उन्होने आधुनिक विश्व को वह
हथियार दिया जो स्वरूप में भारतीय होते हुए भी विश्व के सभी देशो द्वारा अपनाया जा
रहा है। उनका सत्य, अहिंसा और
सत्याग्रह सम्बंधी विचार विश्व पटल पर छाया हुआ है। गांधी जी को राजनेता, मनीषी,
विचारक, दार्शनिक, मानवतावादी,
शांतिवादी
और विश्वबंधुत्व के समर्थक आदि सब कुछ कहा जा सकता है किंतु सबसे ज्यादा महत्व
उनका इस दृष्टि से है कि उन्होने विश्व को सत्य और अहिंसा का अक्षुण्ण एवं शाश्वत
मार्ग बताया। डा. के एम. मुंशी ने गांधी जी के विषय में बताया है कि – “ गांधी जी
ने अराजकता पायी और उसे व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया, कायरता पायी और उसे साहस में बदल दिया, अनेक वर्गो में विभाजित जनसमूह को राष्ट्र
में बदल दिया, निराशा को
सौभाग्य में बदल दिया और बिना किसी प्रकार की हिंसा या सैनिक शक्ति का प्रयोग किए
एक साम्राज्यवादी शक्ति के बंधनों का अंत कर विश्वशांति को जन्म दिया। इससे अधिक न
तो कोई व्यक्ति कुछ कर सका है और न ही कर सकता है।”
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि गांधी जी ने भारतीय आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि व्यवस्थाओं को स्वदेशी स्वरूप देकर भारत में व्याप्त निर्धनता को समरसता की प्रक्रिया द्वारा, संघर्ष को टालकर व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया। इसके लिए गांधी जी ट्र्स्टीशिप के सिध्दांत को अपनाया। हर प्रक्रिया का आधार सामूहिक भागीदारी है। इसके अभाव में हर नियोजन के असफल होने की सम्भावना बढ जाती है । वर्तमान में भी गांधी के सिध्दांतो की महती आवश्यकता है।
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