राष्ट्रकूट राजवंश इतिहास, प्रशासन, संस्कृति एवं स्थापत्य
Rashtrakuta Dynasty- History, Administration, Culture and Architecture
प्रस्तावना
–
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि
राष्ट्रकूट दक्षिण भारत में मौर्यो के समय में रठीक और सातवाहनो के काल में
मरहठी कहलाते थे। ये बहुत समय तक वातापी (बादामी) के चालुक्यों के अधीन
सामंत थे। चालुक्यों की सत्ता क्षीण होने पर वे स्वतंत्र शासक बन गए। इस राज्य की
स्थापना दंतिदुर्ग ने की थी। इसने
आधुनिक शोलापुर के निकट मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाई। दंतिदुर्ग ने उज्जैन में हिरण्य
गर्भदान महायज्ञ किया। प्रमुख शासकों में गोविंद तृतीय और अमोघवर्ष संभवत:
सबसे महान राष्ट्रकूट राजा थे। एक अभिलेख से ज्ञात होता है
कि गोविंद ने चेर, पाण्ड्य, व चोल राजाओं को भयभीत कर दिया था तथा पल्लवों को श्रीहीन
बना दिया था। गोविंद ने जयतुंग्र प्रभृतवर्ष की उपाधि धारण की। अमोघवर्ष ने
लगभग 68 वर्षों तक शासन किया। उसकी रुचि युध्द की अपेक्षा धर्म एवं साहित्य में
अधिक थी। वह स्वयं भी लेखक था तथा उसे राजनीति विषय पर कन्नड़ भाषा की प्रथम कृति कविराजमार्ग
की रचना करने का श्रेय दिया जाता है। इसके दरबार में जिनसेन एवं शकटायन
रहते थे। इन्होंने अमोघवृति की रचना की। अमोघवर्ष के काल में अरब यात्री सुलेमान
भारत आया था।
आगे के शासकों में इन्द्र
तृतीय नें 915 ई. में महिपाल को पराजित करने और कन्नौज
को पदमर्दित करने के बाद अपने समय के सबसे शक्तिशाली राजा के रूप में सामने आया। इन्द्र
तृतीय के काल में अरब यात्री अल-मसूदी आया था। इस राजवंश का अंतिम
प्रतापी राजा कृष्ण तृतीय हुआ। कृष्ण ने चोल शासक परांतक प्रथम को 949 ई. में
परास्त कर चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। वह दक्षिण में
रामेश्वरम की ओर बढ़ा तथा आसपास के प्रदेशों को जीतकर उसने वहाँ एक विजयस्तंभ स्थापित
किया एवं एक मंदिर का निर्माण कराया। दक्कन में राष्ट्रकूट शासन दसवीं सदी के अंत
तक लगभग 200 वर्षों तक कायम रहा। राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम ने एलोरा का प्रसिद्ध
शिव मंदिर 9वीं सदी में बनवाया। राष्ट्रकूट राजाओं ने मुस्लिम
व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की अनुमति दी और साथ ही इस्लाम के
प्रचार की छूट दी। बताया जाता है कि राष्ट्रकूट प्रदेशों में मुस्लिमों के अपने
अलग मुखिया हुआ करते थे। कई तटवर्तीय शहरों में प्रतिदिन इबादत के लिए उनकी
अपनी मस्जिदें थीं।
इस सहिष्णुता की नीति से
विदेशी व्यापार में सहायता मिली, जिससे राष्ट्रकूटों की समृद्धि बढ़ी।
राष्ट्रकूट राजा कला और
साहित्य के महान संरक्षक थे। कन्नड़ साहित्य के त्रीरत्न पंपा, पोंन्ना, रन्ना
थे। प्रथम दो विद्वानों का संरक्षक कृष्ण तृतीय था। उनके दरबार में न केवल
संस्कृत के विद्वान थे, बल्कि अनेक ऐसे कवि और लेखक भी थे, जो प्राकृत और अपभ्रंश
में लिखते थे। ये दोनों भाषाएं अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी बनीं। महान अपभ्रंश
कवि स्वयंभू राष्ट्रकूट राज्य से संबंधित था। राष्ट्रकूटों की जानकारी के
लिए इनके शासको के अभिलेख महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनके उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों
में मतैक्य का अभाव है।
इतिहासकारों में मतभेद- राष्ट्रकूट अभिलेख करहद और देवली में इन्होंने
स्वयं को यदुवंश की एक शाखा माना है व रठ नामक व्यक्ति को अपना पूर्वज बताया है।
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बार्नेट
के अनुसार – राष्ट्रकूट दक्षिण भारत के
आंध्र- द्रविड़ के वंशज थे।
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फ्लीट
के अनुसार राष्ट्रकूट उत्तर भारतीय राठौरों के वंशज थे।
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वैद्य
के अनुसार – राष्ट्रकूट एक राजकीय पद था, जो वंशानुगत हो गया, वे मूलत: महाराष्ट्र के
थे।
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ए.एस. अलटेकर
के अनुसार – इनका मूल निवास स्थान कर्नाटक में था और उनकी मातृ भाषा कन्नड़ थी। पर
राष्ट्रकूट अपने अभिलेखों में अपने आपको यदुवंशी कहते हैं। इनका आदि पुरुष रट्ठ
था।
राष्ट्रकूट
शब्द का अर्थ- राष्ट्र नामक क्षेत्रीय ईकाई के अधिकार वाला
अधिकारी। 7 वीं तथा 8 वीं शताब्दी के भूमि अनुदानों में राष्ट्रकूटों से यह प्रार्थना
की गई है कि वे अनुदानित क्षेत्र की शांति भंग न करें। राष्ट्रकूट मूलत:
महाराष्ट्र के लतलूर (आधुनिक लातूर) के थे। कन्नड़ मूल होने के कारण उनकी मातृ भाषा
कन्नड़ थी तथा मान्यखेत इनकी राजधानी थी।
राष्ट्रकूट राजवंश के प्रमुख शासक-
ü दंतिदुर्ग
– (745 – 758 ई.) - राष्ट्रकूट वंश का स्थापक दंतिदुर्ग ने 745 ई., समगद प्लेट व एलोरा के दशावतार गुफा अभिलेख में
विजयों के उल्लेख में स्वयं को महाराजाधिराज कहा है। साथ
ही उसने (पृथ्वीवल्लभ व खड़गवालोक) की उपाधि धारण की। उज्जैन में हिरण्यगर्भ
दान यज्ञ कराया। दंतिदुर्ग ने चालुक्य
नरेश कीर्तिवर्मन को 753 ई. में पराजित किया। और सम्पूर्ण महाराष्ट्र पर अधिकार
कर लिया। विद्यार्थियों.. इसके साथ ही उसने मान्यखेत को
अपनी राजधानी बनाई। आगे उसने कौशल, कलिंग, मालवा और लाट के शासकों को परास्त किया।
उसने कांची के पल्लवों पर भी विजय प्राप्त की। उसके राज्य में मालवा, महाकौशल और
गुजरात के प्रदेश सम्मिलित थे। उसने परमेश्वर, परमभट्टारक की उपाधियां धारण कीं। 758 ई. में
मृत्यु उसकी हो गई।
ü कृष्ण
-। (758- 773 ई. )- दंतिदुर्ग
का कोई पुत्र न होने के कारण उसका चाचा कृष्ण प्रथम शासक बना। वह एक महान निर्माता
भी था। उसने मैसूर, वेंगी और कोंकण पर अपना अधिकार स्थापित किया। उसने बादामी के चालूक्यों
को सम्पूर्ण समाप्त कर दिया। शुभतुंग व अकालवर्ष की उपाधियां धारण की। उसने
विश्व प्रसिध्द एलोरा के कैलाश मंदिर का निर्माण कराया।
ü गोविंद
द्वितीय (773 - 780 ई.)- गोविंद द्वितीय ने प्रभूतवर्ष विक्रमावलोक
की उपाधि धारण की। परिजातों का दमन किया , वेंगी के चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ को विजित
किया। वह विलासिता में डूबा रहता था। इसलिए उसका भाई ध्रुव
उसे गद्दी से हटा दिया।
ü ध्रुव
(780- 793 ई.) - ज्येष्ठ
भाई गोविंद को हटाकर ध्रुव स्वयं राजा बना। मैसूर के गंगदेव को हराया। कांची के
पल्लव नरेश दंती वर्मन को हराया तत्पश्चात वेंगी के चालुक्यों को हराया, उसने उत्तर
की राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए उत्तर भारत में चल रहे त्रिपक्षीय संघर्ष में
प्रतिहार को पराजित किया। पाल शासक धर्मपाल को भी हराया। ध्यान देने योग्य बिन्दु
यह है कि उसने किसी भी विजित राज्य को अपने में नहीं
मिलाया।
ü गोविंद- III (793 – 814 ई. ) – ध्रुव द्वारा सिहांसन
त्यागने के पश्चात उसका पुत्र गोविंद तृतीय गद्दी
पर बैठा। अपने पिता के भांति उसने भी उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप किया। महत्वाकांक्षी
विजेता था उसने मालवा, कन्नौज तथा बंगाल को अपने सामने आत्म समर्पण करने को बाध्य किया, उसकी प्रसिध्दी
से भयभीत होकर लंका के शासकों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। नि:संदेह ही वह
राष्ट्रकूट वंश का महानतम प्रतापी शासक था।
ü अमोघवर्ष
– (814 – 878 ई.) – अमोघवर्ष शांति प्रिय शासक था। सैनिक अभियानों की
अपेक्षा उसकी साहित्य और धर्म में विशेष अभिरुचि थी। कन्नड़ भाषा में उसने कविराजमार्ग
नामक ग्रंथ की रचना की। मान्यखेत नगर का भव्य निर्माण कराया। सिरूर ताम्रपत्र
अभिलेख के अनुसार गंग, बंग,
मगध, मालवा तथा वेंगी के शासक उसके प्रति सम्मान व्यक्त करते थे।
इसके पश्चात ..
ü कृष्णा
द्वितीय – (878 - 914 ई.) – अमोघवर्ष के उपरांत उसका पुत्र कृष्णा
द्वितीय का अधिकांश समय युध्दों में बीता। वैवाहिक संबंधों
द्वारा प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया। कलचूरी राजा की कन्या से विवाह किया तथा
अपनी कन्या का विवाह चोल शासक आदित्य प्रथम से किया ।
ü इन्द्र
तृतीय – (914- 922 ई.) –
कृष्ण द्वितीय का पौत्र इन्द्र तृतीय गद्दी पर बैठा। उसने गुर्जर –प्रतिहार
सामंत उपेन परमार,
कनौज के प्रतिहार महिपाल को पराजित कर नित्यवर्ष व राजमार्तंड आदि की उपाधि धारण की । इसी के शासन काल में अरब यात्री
अलमसुदी भारत आया।
ü कृष्ण
तृतीय 939- 968 ई., अमोघवर्ष द्वितीय,
गोविंद चतुर्थ, अमोघवर्ष तृतीय, कृष्ण तृतीय, खोटटीगा तथा अंतिम
राष्ट्रकूट नरेश करक द्वितीय हुआ जिसे चालुक्य वंश के तैलप द्वितीय ने सत्ता से
हटा दिया। ध्यान देने वाली बात यह है कि कृष्ण तृतीय के पश्चात राष्ट्रकूट शक्ति
छिन्न-भिन्न हो गई। साथ ही महत्वपूर्ण बिन्दु राष्ट्रकूटो के विषय में यह है कि इस
वंश की स्थापना चालुक्य वंश को हटाकर की गई थी और अंत में चालुक्य वंश द्वारा ही राष्ट्रकूट
राजवंश की सत्ता को उखाड़ फेंका गया।
ü राष्ट्रकूटों की शासन पध्दति उस काल में उदय हुए अन्य क्षेत्रीय राजवंशों के समान ही थी। राजा का पद अनुवांशिक था। राजा की उपाधि दैवीय मानी जाती थी। इस बात की पुष्टि 754 ई. की समगद अभिलेख में उत्कीर्ण किया गया है कि दंतिदूर्ग ने सत्ता प्राप्त करते ही परमभट्टारक, महाराजाधिराज जैसे अनेक उपाधियाँ धारण की थीं। राष्ट्रकूटों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को निम्नवत विभाजित किया था-
केन्द्रीय प्रशासन – राष्ट्रकूट प्रशासन केन्द्रीयकृत होते हुए भी निरंकुश नहीं था। राजा के कार्यों व शासन प्रबंध का संचालन करने के लिए विभिन्न विभागों में मंत्रियों की नियुक्ति की जाती थी जो पूर्णत: योग्यता और निष्ठा के आधार पर थी।
राजा और
राज्य का अस्तित्व सैनिक शक्ति के आधार पर निर्भर करता था। सैनिकों
की व्यवस्था राज्य के अधीनस्थ सामंत करते थे। शक्तिशाली सामंत स्वतंत्र रूप से
अपने क्षेत्रों में शासन करते थे। उनके अधीन उप सामंतों का उल्लेख भी एलोरा व
समदग अभिलेखों से प्राप्त होता है। राजा के द्वारा सामंतों को भूमिदान करने का
प्रचलन था।
प्रांतीय प्रशासन – राष्ट्रकूट प्रशासन
के अंतर्गत केंद्र प्रांतों में विभक्त था। कुछ प्रांतों का प्रबंध सामंतों द्वारा
किया जाता था। वर्तमान प्रशासनिक ढांचे की तरह तत्कालीन कुछ प्रांत राजा के
प्रत्यक्ष नियंत्रण में होते थे। प्रांतों को राष्ट्र कहा जाता था। विद्यार्थियों प्रांतीय प्रशासन को निम्नवत
रेखांकित किया जा सकता है -
ग्राम प्रशासन - प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई
ग्राम थी। ग्राम का प्रमुख मुखिया होता था। जिसकी सहायता के लिए एक लेखाकार व
ग्राम सभा होता था। जिसे ग्राम महत्तर के नाम से जाना जाता था। ग्राम में लगान
वसूलने का कार्य पटवारी करता था। मुखिया अपनी सैनिक टुकड़ी के माध्यम से ग्राम की
कानून व्यवस्था पर भी नियंत्रण रखता था।
राष्ट्रकूटों
की सांस्कृतिक उपलब्धि- राष्ट्रकूट नरेश अपनी
पैतृक परंपरा यादव साहित्यिकी से जोड़ते हैं। राधानपुर लेख में गोविंद
तृतीय की तुलना यदु वंशीय कृष्ण से की गई है। राष्ट्रकूट राजा अनेक प्रकार की
उपाधियाँ जैसे – महाराज, राजाधिराज, परमेश्वर, अकालवर्ष, परमभट्टारक,
विक्रमोवलोक, शुभतुंग आदि धारण करते थे, जो कि उनके महत्व को रेखांकित करती
है।
राष्ट्रकूट राजा धार्मिक दृष्टि से उदार थे। दंतिदुर्ग
ब्राम्हण धर्मावलम्बी था। वहीं अमोघवर्ष का व्यक्तित्व बहुमुखी था। वह विद्या और
कला का संरक्षक था। उसने कन्नड भाषा में कविराजमार्ग नामक काव्य ग्रंथ की
रचना की थी। उसकी राजसभा में अनेक विद्वानों को आश्रय प्राप्त था। आदिपुराण
के रचीयता जिनसेन इनमें प्रमुख थे। शाकटायन भी उन्ही के दरबार में
रहते थे। गणित सारसंग्रह के रचयिता महावीराचार्य की भी उनके दरबार
में उपस्थिति रहती थी। अमोघवर्ष के गुरु जैन आचार्य जिनसेन
गुरु थे। अमोघवर्ष ने प्रश्नोत्तरमालिका नामक नीति ग्रंथ की भी रचना की थी।
कृष्ण
द्वितीय भी जैन मतावलंबी था उसके दरबार में जैन विद्वान गुणचंद था। इन्द्र
तृतीय ने परम महेश्वर की उपाधि धारण की थी। वह शिव का परम भक्त था। वह दक्षिण में
रामेश्वरम तक धावा बोला था वहाँ अपनी विजय की स्मृति में एक देवालय तथा विजय
स्तम्भ का निर्माण कराया था। वह भी विद्वानों का संरक्षक
था। शांति पुराण के रचीयता कवि पोल तथा ज्वालामालिनी कल्प के रचीयता पुष्यदन्त
उसके दरबार में शोभायमान थे।
राष्ट्रकूट
शासकों की स्थापत्य उपलब्धियां- राष्ट्रकूट वंशीय राजा उत्साही निर्माता थे। चूंकि
इस वंश के अधिकांश शासक शैव मतावलंबी थे अत: उनके काल में शैव मंदिर एवं मूर्तियों
का निर्माण किया गया। परंतु दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता का परिचय देते हुए उन्होंने हिन्दू
स्थापत्य के अतिरिक्त जैन तथा बौद्ध धर्म को भी महत्व दिया। कन्हेरी का बौद्ध विहार
इस समय सर्वाधिक प्रसिध्द था। इसके अलावा अरब व्यापारियों के लिए मुस्लिम मस्जिदों
का निर्माण तथा धर्म पालन की पूरी स्वतंत्रता दी गई थी। फलस्वरूप इस काल में अनेक बौद्ध
व जैन गुफाओं का निर्माण कराया गया जिसके अनुसार कला के विभिन्न श्रेणियाँ निम्नवत
देखे जा सकते हैं -
1.
बौद्ध स्थापत्य कला की श्रेणियाँ
1- 12 गुफ़ाएं में अंकित हैं।
2.
हिन्दू स्थापत्य कला
के उत्कृष्ट नमूने 13- 29 गुफ़ाओं शामिल हैं।
3. जैन
स्थापत्य
के क्षेत्र में 30- 34 गुफ़ाएं शामिल हैं।
स्थापत्य
कला की विशेषताएं –
कैलाशनाथ
मंदिर- दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में एलोरा गुफाओं में स्थित है। इस
मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम ने कराया
था।
मंदिर एकाश्म पत्थर (एक ही चट्टान को काटकर)
से निर्मित किया गया है। ऊपर से नीचे की ओर खुदी हुई हैं, हाथियों की नक्काशीदार
आकृतियाँ और पाँच मंदिर| हिन्दू देवी –देवताओं की मूर्तियाँ व साहित्य के कथा दृश्य का वर्णन
किया गया है। 1983 में यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल। स्थापत्य की ‘द्रविड़न
शैली’’ आज भी मील का पत्थर मानी जाती है।
एलीफेंटा
की गुफ़ाएं – महाराष्ट्र में स्थित एलीफेंटा को मूलत:
श्रीपुरी कहा जाता है।
एक हाथी की विशाल आकृति को देखकर पुर्तगालियों ने इसका नाम एलीफेंटा रखा। एलोरा और एलीफेंटा की मूर्तियों की आकृतियों में काफी समानता पाई गई है। त्रिमूर्ति इस मंदिर की काफी भव्य आकृति है। मूर्तिकला 6 मीटर ऊंची है। इसमें शिव के तीन रूप निर्माता, संरक्षक और विनाशक रूप को दर्शाया गया है। वर्तमान में भारत के गौरव में शामिल एलीफेंटा की गुफ़ाएं यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है।
नवालिङ्ग मंदिर-
नवालिङ्ग मंदिर कर्नाटक के कुक्कूनर में नौ बलुआ पत्थरों से बनाया गया है। द्रविड़ शैली में हिन्दू देवी–देवताओं में मुख्य रूप से शिव को समर्पित है।
शिव का विराट
विध्वंशक तथा पुनर्निर्माणक रूप को दर्शाया गया है। प्रत्येक केंद्र में गर्भगृह
है जहां देवी की पूजा को पवित्र माना गया है। मंदिरों पर भगवान विष्णु की पत्नी की
छवि सुशोभित हैं। भगवान विष्णु हिन्दू देवता हैं जो सद्भाव और संतुलन की रक्षा
करते हैं। उपरोक्त स्थापत्य कला तत्कालीन भारत में महत्वपूर्ण कला का केंद्र थीं जो
वर्तमान में भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वैश्विक स्तर पर पहचान बनाए हुए राष्ट्र
का गौरव बनकर प्रतिनिधत्व कर रहीं हैं।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बिन्दु :
ü राष्ट्रकूट वंश
की स्थापना दंतिदूर्ग ने 745 ई. में की।
ü राष्ट्रकूट
चालूक्यों के सामंत थे।
ü राष्ट्रकूटों
की राजधानी मान्यखेत थी।
ü कृष्ण
प्रथम ने एलोरा का प्रसिध्द एकाश्म शिव मंदिर का निर्माण कराया।
ü बौद्ध स्थापत्य कला
की श्रेणियाँ 1- 12 गुफ़ाएं में अंकित हैं।
ü हिन्दू
स्थापत्य कला
के उत्कृष्ट नमूने 13- 29 गुफ़ाओं शामिल हैं।
ü जैन स्थापत्य के
क्षेत्र में 30- 34 गुफ़ाएं शामिल हैं।
ü एलीफेंटा मे शिव के
तीन रूप निर्माता, संरक्षक और विनाशक
रूप को दर्शाया दिखाया गया है।
ü राष्ट्रकूट शासक सभी
धर्मों के संरक्षक थे।
ü साहित्य के क्षेत्र
में अभूतपूर्व योगदान था।
ü एलोरा की गुफाओं को
यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर में 1983 ई में शामिल किया
गया।
ü कला, संरक्षण और संग्रहालय
के इतिहास का राष्ट्रीय संस्थान, नई दिल्ली, के रूप में 27 जनवरी, 1989 इस संस्था का गठन
किया गया। इसकी स्थापना के बाद से कला एवं संस्कृति को विरासत के रूप में राष्ट्रीय
स्तर पर संरक्षण देने का कार्य किया जा रहा है। स्रोत – http://nmi.gov.in/
-भारतीय संस्कृति एप के माध्यम
विद्यार्थी सीधा इसके साइट पर प्रवेश कर भारतीय विरासतों का वर्चुअल भ्रमण कर सकेंगे।
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